Lekhika Ranchi

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राष्ट्र कवियत्री ःसुभद्रा कुमारी चौहान की रचनाएँ ःबिखरे मोती

ग्रामीणा

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सोना का विवाह तय हो गया। वर की आयु बाइस साल की थी। वह सुंदर स्वस्थ एवं चरित्रवान युवक थे। वे एक प्रेस में नौकरी करते थे, पचहत्तर रुपए माहवार तनख्वाह पाते थे। घर में एक बूढ़ी माँ को छोड़कर और कोई न था। बिहार के रहनेवाले थे। कुछ ही दिनों से यु०पी० में आए थे। पर्दे के बड़े ही पक्षपाती और पुरानी रूढ़ियों के कायल थे। नाम था विश्वमोहन। जब तिवारी जी ने विश्वमोहन एवं उनके घर को देखा तो उनकी खुशी का ठिकाना ही न रहा। विश्वमोहन बाबू पूरे साहब ही दिखते थे। उनके घर के सभी खिड़की-दरवाज़ों पर चिकें पड़ी हुई थीं। ज़मीन पर एक दरी बिछी हुई थी जिसके बीच में एक गोल मेज थी। मेज के चारों तरफ़ कुर्सियाँ थीं। सुंदर-सुंदर प्यालों में मेज़ पर बैठकर चाय पीने का तिवारी जी के जीवन का यह पहला अनुभव था। चाय पीने के बाद तिवारी जी ने दो गिन्नियाँ वरिक्षा में देकर शादी पक्की कर दी। रास्ते में नारायण ने कहा, “घर में देखा. कितना पर्दा है? इनकी माँ बूढ़ी हो गई हैं, मगर मज़ाल है जो कोई परछाईं भी देख ले।”

तिवारी जी खुशी-खुशी घर लौटे। घर आकर उन्होंने नंदो के सामने वर के रूप और गुण का बखान किया तो नंदो फूली न समाई। वह जैसा घर और वर अपनी पुत्री के लिए चाहतो थी वैसा ही उसे मिल गया। इसके लिए उन्होंने परमात्मा को धन्यवाद दिया और नारायण को मन से आशीर्वाद दिया।
सोना ने जब सुना कि उसका विवाह हो रहा है, तब वह दौड़कर आई उसने माँ से पूछा, “माँ, विवाह कैसा होता है और क्यों होता है ?"
माँ समझ ही न सकी कि पुत्री को क्या उत्तर दे, किंतु चतुर जानकी ने बात बना ली। वह बोली, "विवाह हो जाने पर अच्छे-अच्छे गहने कपडे मिलते हैं। इसीलिए विवाह होता है। सास के घर जाना पड़ता है।”
सो तो मैं पहले से ही जानती थी बुआ जी, कि विवाह होने पर सास के घर जाना पड़ता है। में कहे देती हूँ कि मैं कहीं नहीं जाऊँगी। विवाह चाहे करो या न करो। कहती हुई सोना खेलने चली गई।
नंदो बोली, “जानकी दीदी! तुम लोगों की कृपा से मेरी सोना सुखी रहे। जैसे उसका नाम सोना है, वैसे ही उसके जीवन में सोना बरसता रहे।''
सोना का बिवाह हो गया। रामधन तिवारी की लड़की का विवाह गाँव के अन्य विवाहों से अलग था। उसमें सभी सामान शहर के लोगों के अनुरूप था।
विदा के समय बेटी के रुदन को देखकर माता-पिता बिहबल हो उठे। विदा के बाद पुत्री के विछोह के साथ-साथ तिवारी जो को आत्मसंतोष भी था कि उनकी पुत्री अच्छे घर में ब्याही गई है सुख से रहेगी।

सोना ससुराल पहुँची। रास्ते भर तो जैसे-तैसे आई, किंतु यहाँ आकर एक कोठरी में बंद कर दी गई और बाहर की साफ़ हवा दुर्लभ हो गई तो उसे ससुराल का जीवन बड़ा कष्टकर मालूम हुआ। चार-छै दिन में ही वह मुरझा गई। एक दिन विश्वमोहन ऑफिस चले गए थे, सास सो रही थी। सोना आँगन के दरवाज़े तक चली आई। चिक को हटाकर ज़रा बाहर झाँका। यहाँ देहात की सुंदरता तो न थी, किंतु साफ़ हवा तो थी ही। उसी समय एक बुढ़िया वहाँ से निकली। सोना को उसने चिक के पास देख लिया। उसने आकर उसकी सास से शिकायत की-''बिसनू की अम्माँ तुम्हारी बहू के लच्छन अच्छे नहीं हैं।"

सोना को समझ ही न आया कि उसे किस काम के लिए डाँट पड़ रही है। चिक के पास जाकर उसने कौन-सा अपराध कर दिया। इसी बीच सोना को लेने तिवारी जी आ गए। उसने मन-ही-मन निश्चय किया कि वह वापस नहीं आएगी।

लेकिन शहरवाले बहू को मैके में ज़्यादा दिन नहीं रहने देते। विश्वमोहन पंद्रह दिन बाद ही सोना को लेने आ गए। वे जब आ रहे थे तो उन्हें सोना रास्ते में ही पेड़ पर चढ़ी मिली। उसके साथ और भी बहुत से लड़के-लड़कियाँ थे। सोना का सिर खुला था। सोना को विश्वमोहन ने देखा, कितु वह उन्हें न देख पाई। पत्नी के रंग-ढंग उन्हें न सुहाए और उन्होंने निश्चय किया कि अब वे अपनी पत्नी को यहाँ न भेजेंगे।

सोना फिर ससुराल आई। सास ने गृहस्थी का सारा भार सोना पर डालकर गृहस्थी से छूट्टी ले ली। सोना ने कभी घर का काम न किया था। अतः उसे बहुत कठिनाई हुई। धीरे-धीरे उसे काम का अभ्यास हो गया।

घर में रात दिन बंद रहने की आदत न थी। बाहर जाने के लिए उसका मन व्याकुल रहता। बाहर 'चना ज़ोर गरम' या अन्य आवाज़ सुनकर वह व्याकुल हो जाती। अपना यह जीवन उसे कैदखाने के समान लगता। सोना बहुत दिनों तक अपने आपको रोक न सकी। वह पति एवं सास की आँख बचाकर गृहकार्य के पश्चात्‌ कभी खिड़की, कभी दरवाज़े के पास खड़ी होकर या जैसा मौका मिलता जाकर खड़ी हो जाती। बाहर का दृश्य, हरे-भरे पेड़ पत्तियाँ देखकर उसे कुछ शांति मिलती। मुहल्लेवालों से यह बात सहन न हुई। कल की आई हुई बड़े घर की बहू सदा खिड़की-दरवाज़ों से लगी रहे। पुराने विचारवाले पर्दे के पक्षपातियों को सोना की हर बात में बुराई नज़र आने लगी।

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